Shivkar Bapuji Talpade Biography in Hindi | The First Man Who Invented Plane Before Wright Brothers.
BY Mr_dad_digvijay
यहां जिस मुंबईकर की बात की जा रही है, उनका नाम शिवकर बापूजी तलपड़े है. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक तलपड़े ने शहर के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में बतौर इंस्ट्रक्टर काम करते हुए इस हवाई जहाज का निर्माण किया.
ऐसा मालूम पड़ता है कि वे हिंदू मिथकों- भारद्वाज ऋषि द्वार रचित ‘विमानिका शास्त्र’ में आए विमानों के कथित वर्णनों से प्रभावित थे और वैसा ही विमान बनाना चाहते थे. किस्से-कहानियों के आधार पर तैयार किए गए अपनी रिपोर्ट में वास्तुविद्-इतिहासकार प्रताप वेलकर कहते हैं कि जिस दिन इस विमान को उड़ाया जाना था, उस दिन कम ही लोग दर्शक के तौर पर मौजूद थे.
हालांकि, डेक्कन क्रॉनिकल में केआरएन स्वामी नाम के एक लेखक की एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूद दर्शकों में उस समय बड़ौदा के राजा भी शामिल थे.
अंतिम परिणाम के हिसाब से इस अंतर्विरोध को मामूली कहा जा सकता है. वेलकर और स्वामी दोनों कहते हैं कि तलपड़े का विमान कुछ समय के लिए हवा में रहा था और जमीन पर आने से पहले इसने 1,500 फीट ऊंचाई तक उड़ान भरी.
इस कारनामे को अंजाम देने के लिए मरकरी (पारा) वोर्टेक्स इंजन का इस्तेमाल किया गया. यह मरकरी यानी पारे का एक ड्रम था, जो सूर्य की रौशनी के संपर्क में आने पर हाइड्रोजन छोड़ता था और जहाज को ऊपर की ओर उड़ाता था.
यह जानना दिलचस्प होगा कि पारा सूर्य की रौशनी के साथ किसी किस्म की प्रतिक्रिया नहीं करता है. ये बात जरूर है कि यह सूरज की रोशनी से प्रेरित रासायनिक प्रतिक्रियाओं में भागीदारी कर सकता है. लेकिन यह ऑक्सीजन के साथ बहुत थोड़ी मात्रा में प्रतिक्रिया करता है.
Shivkar_Bapuji_Talpade wiki
शिवकर बापूजी तलपड़े. (फोटो: विकीपीडिया)
इसलिए यह साफ नहीं है कि प्लेन को हवा में उड़ाने के लिए जिस हाइड्रोजन की बात की गई है, वह आखिर आया कहां से? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने लेख में स्वामी ने यह दावा किया है कि तलपड़े का विमान इतने बल (थर्स्ट) को जन्म देने में कामयाब हुआ कि इसने 200 किलोग्राम के विमान को हवा में उड़ा दिया और उसे 1,500 फीट की ऊंचाई तक ले गया.
वेलकर इससे इनकार करते हैं. अंत में वेलकर और स्वामी दोनों ने एक स्वर में यह कहा है कि यह चालकरहित विमान था. लेकिन राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा है कि तलपड़े ने इस विमान को खुद उड़ाया. लेकिन उनके ऐसा कहने का कोई आधार नहीं है.
इन और दूसरी कहानियों को पूरी तरह से खारिज किया जा चुका है- खासकर पश्चिम की वैज्ञानिक परंपराओं के द्वारा. लेकिन सत्यपाल सिंह उनकी बात मानने को तैयार नहीं हैं. इसे खारिज करने का अकाट्य तर्क यह है कि अगर कोई तलपड़े के सिद्धांत पर हवा में उड़नेवाला विमान बनाना चाहे, तो उसे ऐसा करने में कामयाबी मिलनी चाहिए. लेकिन ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं हो सका है.
ये सारी बातें, एक जरूरी तथ्य को दरगुजर कर देती हैं. वेलकर के मुताबिक 1895 की एक अज्ञात तारीख को तलपड़े द्वारा अपने विमान का प्रदर्शन किए जाने के बाद वे दूसरा विमान बनाने के लिए न तो बड़ौदा के राजा, न ही किसी व्यवसायी से फंड जुटा पाने में कामयाब हो पाए.
इस कार्य में सरकार की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली. आखिरकार जब वेलकर तलपड़े द्वारा लिखित रिसर्च पेपर तक पहुंच पाने में कामयाब रहे, जो जीएच बेडकर नामक एक वैज्ञानिक के पास था, तो बेडकर ने उन्हें बताया कि इस पेपर से यही पता चलता है कि तलपड़े अपने प्रयासों में नाकाम रहे थे.
हमें अपने छात्रों को यह नहीं सिखाना चाहिए कि तलपड़े ने विमान उड़ाया था. ठोस प्रमाणों की गैरहाजिरी में हमें यह भी नहीं पढ़ाना चाहिए कि वे कामयाब रहे थे, क्योंकि इस सफलता को लेकर विवाद है.
हमें उन्हें यह सिखाना चाहिए कि तलपड़े ने कोशिश की थी, जो ज्यादा महत्वपूर्ण है. हमारे अज्ञान के अंधकार में एक ऐसी मोमबत्ती का निर्माण करना निरर्थक है, जो क्षणभर के लिए जगमगाकर बुझ जाता है और विवाद को जन्म देता है. हमें अपने छात्रों को ऐसी मोमबत्ती का निर्माण करने के लायक बनाना चाहिए, जो जलती रहती है, बुझती नहीं है.
जैसा कि विज्ञान के इतिहासकार अपराजित रामनाथ ने द वायर में लिखा था, ‘(शोध) को प्राथमिकता की लड़ाई में महदूद कर देना जटिल पोट्रेट को भौंड़े स्केच से बदल देने जैसा है.’
‘प्राचीन तकनीक’ को अगर पाठ्यक्रम में शामिल करना ही है, तो इसके पीछे मकसद जीवट और उद्यमशीलता की भावना को जगाना होना चाहिए. आज किसी शिवकर बापूजी तलपड़े को कोशिश करने और नाकाम होने की छूट होनी चाहिए. बजाय इसके कि नाकामी जीवन भर के लिए उसमें निराशा भर दे.
इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि अच्छा शोध वैश्विक धरोहर होता है, जो अमूल्य है. मिसाल के लिए, अलग-अलग प्रयोगशालाओं में काम करने वाले दो वैज्ञानिक अपने प्रयोगों के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली वैज्ञानिक पद्धति से जुड़े होते हैं.
अपनी अलग मूल्य-प्रणाली का निर्माण करने के लिए इस संबंध को दरगुजर करना, हमें कहीं नहीं लेकर जाएगा. न इससे हमें अपने अतीत को बेहतर तरीके से जानने में मदद मिलेगी, न ही अपने भविष्य को आकार देने में ही यह हमारा मददगार साबित होगा. इसलिए यह स्वीकार करना कि आॅरविल और विल्बर राइट ने 1903 में पहली बार एक विमान उड़ाया था, एक तार्किक बात है.
वैज्ञानिकों और इंजीनियरों द्वारा आज भी इस बात को इसलिए स्वीकार किया जाता है, क्योंकि उस विमान का फिर से निर्माण किया जा सकता है. यह विमान उसी तरह से उड़ान भरेगा, जैसा वर्णन राइट बंधुओं और इतिहासकारों ने किया है.
ऐसा विमान उन वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित होगा, जिन्हें कई बार प्रमाणित किया जा चुका है. इसलिए यह कहना कि यह प्राचीन भारतीय ज्ञान पर जाली ढंग से आधिपत्य जमाता है, गलत धारणा है.
दरअसल ऐसा नहीं है. इसी बिंदु पर पश्चिम की वह मिथ्या आलोचना छिपी है, जिसे आधुनिक, उत्तर-औपनिवेशिक भारत के एक हिस्से के दिमाग में भरा गया है.
‘सफलता’ की एक विमान के तौर पर व्याख्या करना, जिसने हजारों साल पहले के प्राकृतिक नियमों के अनुसार उड़ान भरी थी और ‘सफलता’ को वैश्विक पटल पर रिसर्च की गुणवत्ता में सुधार के तौर पर व्याख्या करना, दरअसल आज उस अंतर्द्वंद्व को बयां करता है, जिससे सिंह और उनके जैसे लोग बाहर निकल पाने में नाकाम रहे हैं.
यही वह अंतर्द्वंद्व है, जो भारत को अतीत के ज्ञान देने वाले से आधुनिक ज्ञान लेने वाले में तब्दील होने से रोकता है. यही वह अंतर्द्वंद्व है, जिसे एक इतिहासकार आसानी से वर्तमान में अतीत का अक्स खोजने की आदत कह कर खारिज कर देंगे.
हमें ग्रहण करने के मामले में सहज बनना पड़ेगा, ताकि हम एक बार फिर से देने वाले बन सकें. हम लोग अतीत से उस दुनिया को कुछ नहीं दे सकते हैं, जो काफी आगे बढ़ चुकी है.
इसी के साथ, भारत के रिसर्च आउटपुट को बेहतर करने के लिए, मात्रा और गुणवत्ता दोनों की दृष्टियों से, एक ऐसे राज्य की दरकार है, जो घटित होने वाले बदलावों को स्वीकार करे. इसके लिए एक ऐसे राज्य की जरूरत है जो अंतरराष्ट्रीय करारों का पालन करने वाले रिसर्चों के लिए पर्याप्त फंड मुहैया कराए और जो यह सुनिश्चित करे कि ऐसे फंड रिसर्च करने वालों तक समय पर पहुंचे और उनका सही तरीके से उपयोग किया जाए, बजाय इसके कि प्रतिभाएं उस तरह गुमनामी के अंधेरे में समा जाएं, जैसे तलपड़े समा गए.
इसके लिए एक ऐसे राज्य की जरूरत है, जो शोध के पकने का इंतजार करने के लिए तैयार हो, जो चमक के क्षण के आने से पहले मोमबत्तियों के जलने के महत्व को समझता हो और चमक के न होने पर नाक-भौं नहीं सिकोड़ता, असंतोष का प्रदर्शन नहीं करता.
अगर सत्यपाल सिंह जैसी सोच प्रमुखता हासिल करती है, तो भारत को अंधकार के एक लंबे दौर के लिए तैयार रहना चाहिए.
शिवकर बापुजी तलपडे नाम सुना है ? नही सुना होंगा और सुनोंगे भी कैसे ? क्युकी हमको कभी इनके बारे में बताया ही नही गया | अब आप सोच रहे होंगे की आखिर कौन है शिवकर बापुजी तलपडे ? पर उससे पहले ये बताओ की सबसे पहले हवाई जहाज यानी प्लेन का आविष्कार किसने किया था? राइट ब्रदर्स ने ना, जी नही सबसे पहले हवाई जहाज का आविष्कार एक भारतीय ने किया था जिनका नाम है शिवकर बापुजी तलपडे | नान याद रखलो काम आयेगा |
यूँ तो आपने अक्सर सुना है और किताबों में पढ़ा है कि पहला हवाई जहाज राइट ब्रदर्स ने बनाया था और उसके बाद से ही मनुष्य बडे आराम से हवा में उडने का आनंद ले पाया है |
पूरी दुनिया के लिए राइट ब्रदर्स ही हवाईजहाज के असली खोजकर्ता थे, मगर इतिहास के पन्नों में एक कहानी और भी है और वो कहानी है शिवकर बापूजी तलपड़े की, जिन्हें हवाई जहाज का असली जनक माना जाता है |
आखिर क्या है शिवकर बापूजी की असली कहानी, चलिए जानते हैं -
1864 में मुम्बई में उनका जन्म हुआ | शिवकर बापुजी तलपडे शुरुआत से पढाई लिखाई में तेज थे | संस्कृत और पौराणिक वेद उनके सबसे प्रिय ग्रंथ माने जाते थे | यू तो वो आम जिंदगी जिते थे, मगर उनकी सोज आम नही थी | उनके अंदर हमेशा से ही कुछ अलग और बडा करना चाह थी | उन्होंने हमेशा ही पौराणिक गाथाओं में विमान का ज़िक्र सुना था | कैसे भगवान के पास एक ऐसा वाहन हुआ करता था जो व्यक्ति को आकाश में उड़ाता था | यूँ तो बहुत से भारतियों ने इसके बारे में सिर्फ पढ़ा था मगर शिवकर बापूजी ने ही उस समय इस पर अलग ढंग से गौर किया |
शिवकर बापूजी तलपड़े ने हजारों साल पहले भारद्वाज ऋषि द्वारा लिखी गई किताब “वैमानिका शास्त्र” को पढ़ा और उनकी सोच बदल गई | भारत में हजारों साल पहले विमानों का इतिहास मिलता है | प्राचीन भारतीय ऋषि मुनियों द्वारा रचित श्लोकों में विमान संबंधी विधियों का उल्लेख है | वहीं रामायण और महाभारत के साथ कई अन्य वैदिक ग्रंथों में भी विमानों के बारे में स्पष्ट उल्लेख किया गया है |
वह एक पूर्ण विमान बनाना चाहते थे ताकि इंसान भी पक्षियों के तरह उड़ सके | अपनी इस सोच के साथ शिवकर बापूजी लग गए विमान की खोज में |
Shivkar Bapuji Talpade — Journey To Invented Plane
वो पूरा दिल लगा के हवाई जहाज बनाने में लग गए | उन्होंने हर किताब को पढ़ लिया | हर मुमकिन कोशिश कर ली विमान की कल्पना को हकीकत बनाने के लिए |
विमान बनाने में सबसे पहली चुनौती जो उनके सामने थी वह यह थी कि विमान निर्माण में जरूरी सामान को कैसे लायें |
यह परेशानी उन्हें दो कारणों से थी | पहला कारण था कि उनके पास पैसों की कमी थी | सामान बहुत सारा लाना था | कई उपकरण और बहुत सी चीजें इसके लिए जरूरी थी | दुसरा कारण था कि अंग्रेजों की नज़रों से बचा कर इस काम को अंजाम देना था |
अगर किसी भी अंग्रेज को इस बात की भनक भी लग जाती तो वह शिवकर बापूजी के इस सपने को हमेशा के लिए ख़त्म कर देते | इन सब के बावजूद वह धीरे-धीरे विमान बनाने की कोशिश करते रहे |
उन्होंने बांस का भी इस्तेमाल किया | ईंधन के तौर पर इसमें तरल पारा इस्तेमाल किया गया | कहते हैं कि वह वजन में हल्का था, इसलिए विमान को उड़ने में परेशानी नहीं होती |
अपना पैसा और मेहनत लगाने के बाद आखिरकार उन्होंने विमान को उसका रूप दे ही दिया | वह बहुत अच्छा तो नहीं दिखाई देता था मगर उससे उड़ने की उम्मीद की जा रही थी |
Shivkar Bapuji Talpade — Fly World’s First Plane
शिवकर बापूजी अपना विमान बना दिया था और अब बस उसे उड़ा के देखना बाकी रह गया था | उन्होंने उस विमान का नाम ‘मरुत्सखा’ रखा था | इस नाम का मतलब था ‘हवा का दोस्त’.
साल 1895 की उस सुबह शिवकर बापूजी अपना विमान लेकर मुंबई के चौपाटी पर गए | उनके इस आविष्कार को देखने के लिए कोई पत्रकार वहां मौजूद नहीं था | वहां थे तो बस बापूजी के कुछ अपने जिन्हें उन पर पूरा भरोसा था |
उन्होंने अपना विमान शुरू किया और...
यहां जिस मुंबईकर की बात की जा रही है, उनका नाम शिवकर बापूजी तलपड़े है. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक तलपड़े ने शहर के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में बतौर इंस्ट्रक्टर काम करते हुए इस हवाई जहाज का निर्माण किया.
ऐसा मालूम पड़ता है कि वे हिंदू मिथकों- भारद्वाज ऋषि द्वार रचित ‘विमानिका शास्त्र’ में आए विमानों के कथित वर्णनों से प्रभावित थे और वैसा ही विमान बनाना चाहते थे. किस्से-कहानियों के आधार पर तैयार किए गए अपनी रिपोर्ट में वास्तुविद्-इतिहासकार प्रताप वेलकर कहते हैं कि जिस दिन इस विमान को उड़ाया जाना था, उस दिन कम ही लोग दर्शक के तौर पर मौजूद थे.
हालांकि, डेक्कन क्रॉनिकल में केआरएन स्वामी नाम के एक लेखक की एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूद दर्शकों में उस समय बड़ौदा के राजा भी शामिल थे.
अंतिम परिणाम के हिसाब से इस अंतर्विरोध को मामूली कहा जा सकता है. वेलकर और स्वामी दोनों कहते हैं कि तलपड़े का विमान कुछ समय के लिए हवा में रहा था और जमीन पर आने से पहले इसने 1,500 फीट ऊंचाई तक उड़ान भरी.
इस कारनामे को अंजाम देने के लिए मरकरी (पारा) वोर्टेक्स इंजन का इस्तेमाल किया गया. यह मरकरी यानी पारे का एक ड्रम था, जो सूर्य की रौशनी के संपर्क में आने पर हाइड्रोजन छोड़ता था और जहाज को ऊपर की ओर उड़ाता था.
यह जानना दिलचस्प होगा कि पारा सूर्य की रौशनी के साथ किसी किस्म की प्रतिक्रिया नहीं करता है. ये बात जरूर है कि यह सूरज की रोशनी से प्रेरित रासायनिक प्रतिक्रियाओं में भागीदारी कर सकता है. लेकिन यह ऑक्सीजन के साथ बहुत थोड़ी मात्रा में प्रतिक्रिया करता है.
Shivkar_Bapuji_Talpade शिवकर बापूजी तलपड़े. |
इसलिए यह साफ नहीं है कि प्लेन को हवा में उड़ाने के लिए जिस हाइड्रोजन की बात की गई है, वह आखिर आया कहां से? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने लेख में स्वामी ने यह दावा किया है कि तलपड़े का विमान इतने बल (थर्स्ट) को जन्म देने में कामयाब हुआ कि इसने 200 किलोग्राम के विमान को हवा में उड़ा दिया और उसे 1,500 फीट की ऊंचाई तक ले गया.
वेलकर इससे इनकार करते हैं. अंत में वेलकर और स्वामी दोनों ने एक स्वर में यह कहा है कि यह चालकरहित विमान था. लेकिन राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा है कि तलपड़े ने इस विमान को खुद उड़ाया. लेकिन उनके ऐसा कहने का कोई आधार नहीं है.
इन और दूसरी कहानियों को पूरी तरह से खारिज किया जा चुका है- खासकर पश्चिम की वैज्ञानिक परंपराओं के द्वारा. लेकिन सत्यपाल सिंह उनकी बात मानने को तैयार नहीं हैं. इसे खारिज करने का अकाट्य तर्क यह है कि अगर कोई तलपड़े के सिद्धांत पर हवा में उड़नेवाला विमान बनाना चाहे, तो उसे ऐसा करने में कामयाबी मिलनी चाहिए. लेकिन ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं हो सका है.
ये सारी बातें, एक जरूरी तथ्य को दरगुजर कर देती हैं. वेलकर के मुताबिक 1895 की एक अज्ञात तारीख को तलपड़े द्वारा अपने विमान का प्रदर्शन किए जाने के बाद वे दूसरा विमान बनाने के लिए न तो बड़ौदा के राजा, न ही किसी व्यवसायी से फंड जुटा पाने में कामयाब हो पाए.
इस कार्य में सरकार की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली. आखिरकार जब वेलकर तलपड़े द्वारा लिखित रिसर्च पेपर तक पहुंच पाने में कामयाब रहे, जो जीएच बेडकर नामक एक वैज्ञानिक के पास था, तो बेडकर ने उन्हें बताया कि इस पेपर से यही पता चलता है कि तलपड़े अपने प्रयासों में नाकाम रहे थे.
हमें अपने छात्रों को यह नहीं सिखाना चाहिए कि तलपड़े ने विमान उड़ाया था. ठोस प्रमाणों की गैरहाजिरी में हमें यह भी नहीं पढ़ाना चाहिए कि वे कामयाब रहे थे, क्योंकि इस सफलता को लेकर विवाद है.
हमें उन्हें यह सिखाना चाहिए कि तलपड़े ने कोशिश की थी, जो ज्यादा महत्वपूर्ण है. हमारे अज्ञान के अंधकार में एक ऐसी मोमबत्ती का निर्माण करना निरर्थक है, जो क्षणभर के लिए जगमगाकर बुझ जाता है और विवाद को जन्म देता है. हमें अपने छात्रों को ऐसी मोमबत्ती का निर्माण करने के लायक बनाना चाहिए, जो जलती रहती है, बुझती नहीं है.
जैसा कि विज्ञान के इतिहासकार अपराजित रामनाथ ने द वायर में लिखा था, ‘(शोध) को प्राथमिकता की लड़ाई में महदूद कर देना जटिल पोट्रेट को भौंड़े स्केच से बदल देने जैसा है.’
‘प्राचीन तकनीक’ को अगर पाठ्यक्रम में शामिल करना ही है, तो इसके पीछे मकसद जीवट और उद्यमशीलता की भावना को जगाना होना चाहिए. आज किसी शिवकर बापूजी तलपड़े को कोशिश करने और नाकाम होने की छूट होनी चाहिए. बजाय इसके कि नाकामी जीवन भर के लिए उसमें निराशा भर दे.
इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि अच्छा शोध वैश्विक धरोहर होता है, जो अमूल्य है. मिसाल के लिए, अलग-अलग प्रयोगशालाओं में काम करने वाले दो वैज्ञानिक अपने प्रयोगों के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली वैज्ञानिक पद्धति से जुड़े होते हैं.
अपनी अलग मूल्य-प्रणाली का निर्माण करने के लिए इस संबंध को दरगुजर करना, हमें कहीं नहीं लेकर जाएगा. न इससे हमें अपने अतीत को बेहतर तरीके से जानने में मदद मिलेगी, न ही अपने भविष्य को आकार देने में ही यह हमारा मददगार साबित होगा. इसलिए यह स्वीकार करना कि आॅरविल और विल्बर राइट ने 1903 में पहली बार एक विमान उड़ाया था, एक तार्किक बात है.
वैज्ञानिकों और इंजीनियरों द्वारा आज भी इस बात को इसलिए स्वीकार किया जाता है, क्योंकि उस विमान का फिर से निर्माण किया जा सकता है. यह विमान उसी तरह से उड़ान भरेगा, जैसा वर्णन राइट बंधुओं और इतिहासकारों ने किया है.
ऐसा विमान उन वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित होगा, जिन्हें कई बार प्रमाणित किया जा चुका है. इसलिए यह कहना कि यह प्राचीन भारतीय ज्ञान पर जाली ढंग से आधिपत्य जमाता है, गलत धारणा है.
दरअसल ऐसा नहीं है. इसी बिंदु पर पश्चिम की वह मिथ्या आलोचना छिपी है, जिसे आधुनिक, उत्तर-औपनिवेशिक भारत के एक हिस्से के दिमाग में भरा गया है.
‘सफलता’ की एक विमान के तौर पर व्याख्या करना, जिसने हजारों साल पहले के प्राकृतिक नियमों के अनुसार उड़ान भरी थी और ‘सफलता’ को वैश्विक पटल पर रिसर्च की गुणवत्ता में सुधार के तौर पर व्याख्या करना, दरअसल आज उस अंतर्द्वंद्व को बयां करता है, जिससे सिंह और उनके जैसे लोग बाहर निकल पाने में नाकाम रहे हैं.
यही वह अंतर्द्वंद्व है, जो भारत को अतीत के ज्ञान देने वाले से आधुनिक ज्ञान लेने वाले में तब्दील होने से रोकता है. यही वह अंतर्द्वंद्व है, जिसे एक इतिहासकार आसानी से वर्तमान में अतीत का अक्स खोजने की आदत कह कर खारिज कर देंगे.
हमें ग्रहण करने के मामले में सहज बनना पड़ेगा, ताकि हम एक बार फिर से देने वाले बन सकें. हम लोग अतीत से उस दुनिया को कुछ नहीं दे सकते हैं, जो काफी आगे बढ़ चुकी है.
इसी के साथ, भारत के रिसर्च आउटपुट को बेहतर करने के लिए, मात्रा और गुणवत्ता दोनों की दृष्टियों से, एक ऐसे राज्य की दरकार है, जो घटित होने वाले बदलावों को स्वीकार करे. इसके लिए एक ऐसे राज्य की जरूरत है जो अंतरराष्ट्रीय करारों का पालन करने वाले रिसर्चों के लिए पर्याप्त फंड मुहैया कराए और जो यह सुनिश्चित करे कि ऐसे फंड रिसर्च करने वालों तक समय पर पहुंचे और उनका सही तरीके से उपयोग किया जाए, बजाय इसके कि प्रतिभाएं उस तरह गुमनामी के अंधेरे में समा जाएं, जैसे तलपड़े समा गए.
इसके लिए एक ऐसे राज्य की जरूरत है, जो शोध के पकने का इंतजार करने के लिए तैयार हो, जो चमक के क्षण के आने से पहले मोमबत्तियों के जलने के महत्व को समझता हो और चमक के न होने पर नाक-भौं नहीं सिकोड़ता, असंतोष का प्रदर्शन नहीं करता.
अगर सत्यपाल सिंह जैसी सोच प्रमुखता हासिल करती है, तो भारत को अंधकार के एक लंबे दौर के लिए तैयार रहना चाहिए.
Aeronautical Science , Sanskrit written in verse is a text in which planes have been informed about. It is mentioned in this book that aircraft described in ancient Indian texts were advanced aerodynamic aircraft flying like rockets
Shakun Vimana', represented in aeronautics |
Announcing the book existed in 1952. RG Josyr made by (GR Josyer). Josier said that this book was composed by Pandit Subbaray Shastri (1866–1940), who wrote it in writing between 1918–1923. A Hindi translation of it was published in 1959 while an English translation with a Sanskrit text was published in 1973.
English translation of 'Vaimanik Shastra' published in 1963 under the name 'The Vimanik Shastra' |
It has a total of 6 chapters and 3000 verses. According to Pandit Subbaraya Shastri, the main father of this book was Maharishi Bhardwaj of Ramayana .
Bharadwaj has defined 'Vimana' as-
Chapter 1
Mangalacharanam
Airbase
Superannuation
Margadhikaranam
Awaarakaranam
Ankakaranam
Vastrakaranam
Aahakaranam
Karmadhikadhikarnamaram
Vimanadharanam
Authorization
Varnadharanam
Chapter 2
Noun
Ironclad
Rite of passage
Darpanadhikaranam
Empowerment
Yantraikaranam
Oily
Idhyadhikaranam
Exponent
Bharadhikaranam
Chapter 3
Misleading
Kalaikadharanam
Option deed
Rite of passage
Publisher authorization
Usurpation
Satyadhikaranam
Andolanadhikaranam
Trident
Vishwatomukhikadharanam
Dhumadhikaranam
Authorization
Treatise
Chapter 4
Draw
Banadhikaranam
Vagadhikaranam
Hagadhikaranam
Lehgadhikaranam
Lavagadhikaranam
Lavahagadhikaranam
Varanagamadhikaranam
Interlocutory tribunal
Extracurricular
Out-of-the-box
Chapter 5
Tantrikaranam
Electrification authority
Trade order
Column post
Mohanadhikaranam
Vikaradharanam
Referendum
Invocation
Slammer
Concession
Hourly rights
Shukrabhramanadhikaranam
Chakragatradhikaranam
Chapter 4
Class division tribunal
Left deed
Power of death
Sutvaadhikaranam
Fumigation
Shikhodagamadharanam
Anshuvaadhikaranam
Starred officer
Manivaadhikaranam
Matsutsakadhikaranam
Power-delegation
Garudadhikaranam
Chapter 4
Sinhaikadhikaranam
Trinitarian
Decipherment
Kurmadhikaranam
Volcano
Mandalikadhikaranam
Andolikadhikaranam
Flag hoax
Vrindavanadhikaranam
Varinicadhikaranam
Jaladadhikaranam
Chapter 4
Delegation
Flag hoisting
Kalaikadharanam
Detailed function
Angopahsadhikaranam
Tamarasadhikaranamam
Prancolemma
Modus operandi
Reflection rights
Gamagamadhikaranam
Housing
Solicitation
Circumambulation
Protection order
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